Monday, September 18, 2017

मम्मी की बरसी

आज मम्मी की पहली पुण्यतिथि है ! एक वर्ष पहले आज ही दिन मम्मी हम सब को छोड़ कर चली गईं थीं ! एक वर्ष में करोड़ों पल और हर पल जैसे एक युग की तरह बीता ! मेरे लिए आज भी स्वीकार करना कितना मुश्किल है कि मम्मी तुम नहीं हो !

एक बरस यूँ बीत गया है
पर मानो हो कल की बात,
क्रूर काल ने छीन तुम्हें
हम सब पर किया वज्र-आघात !
जीने को तो जी ही लेंगे
जीवन जैसे-तैसे हम,
पर यह घर सूना है तुम बिन,
और तुम्हारी हर पल याद !
यह शरीर मरता हैं माँ ! पर
तुम तो मुझमें रची बसी हो,
मेरे मन को सदा यकीं है,
माँ तुम अब भी यहीं कहीं हो !

Monday, June 5, 2017

उनवान लिख रहा हूँ !

उनवान लिख रहा हूँ गज़लों में ज़िदगी के,
आँसू में डूबी खुशियाँ, रोती हुई हंसी के |

सूरज कहीं डुबा दो ये रोशनी बुझा दो,
अरमान सिर्फ इतने होते हैं तीरगी के ।

मुस्कान तो चुका दी किश्तों में ब्याज देकर,
खुशियाँ हिसाब करती हैं क़र्ज़ और बही के ।

वो ख़त सभी जो तुमने मुझको लिखे थे, उनसे,
अब तक महक रहे हैं पन्ने भी डायरी के।

सब शौक आज़मा लो हर तिश्नगी बुझा लो,
मुझको भी तो चुकाने हैं कर्ज़ दिल्लगी के।

ज़ुल्फें सियाह रातें रुखसार माहताबी।
तुमको सिखा रहा हूँ अंदाज शायरी के !

ढेरों सुखनवरों में "अम्बेश" खो गया है,
फिर शौक भी तो खुद ही पाले हैं ग़ालिबी के !

Saturday, May 20, 2017

उठो लाल अब आँखें खोलो !

मोदी सरकार के तीन साल पूरे होने पर 16 मई 2017 को लिखी गयी व्यंग्य कविता -

उठो लाल अब आँखें खोलो,
तीन साल हो गए कुछ तो बोलो !

सीमा पर नित सैनिक मरते,
और नक्सली हमले करते,
कोई एक्शन करो जनाब,
तुम तो केवल निन्दा करते !
रिश्वतखोरी अब भी वैसी,
महँगाई भी जैसी तैसी !
रोज़गार है कहाँ बताओ ?
कालाधन अब तो ले आओ !
बिना बात की मन की बात,
अब तो कर लो जन की बात !
समय निकलता उसे न खो,
मेरे प्यारे अब मत सो !!

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अम्बेश तिवारी

मन की बात

एक कविता -

कुछ अनकही सी बातें मेरे और तुम्हारे बीच
हवा में डोलती हैं,
हम कहते कुछ और हैं पर निगाहें कुछ और बोलती हैं !
समाज की मर्यादा, रिश्तों के बंधन और
उम्र की सीमायें रोकती है हमें !
तुम क्या सोचोगी, मैं क्या जवाब दूँगा,
यह आशंकाएं टोकती हैं हमें !
और हम रह जाते हैं सिर्फ Good morning, Good night, और Nice pic के बीच झूलते !
हर बार यही सोचते कि आज तो कह ही देंगे,
और हर बार फिर यही बात भूलते !
ज़िन्दगी यूँ ही धीरे धीरे निकल जायेगी हाथ से,
और हम रह जाएंगे दूर मन की बात से !

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अम्बेश तिवारी

Friday, February 17, 2017

हँस कर बड़े तपाक से मिलता जरूर है !

 हँस कर बड़े तपाक से मिलता ज़रूर है,

मुझमें भी मगर कोई तो तन्हा ज़रूर है.

तूफ़ान मुझ से हो के गुज़रते हैं किसलिए ,
कोई न कोई मुझमें भी रस्ता ज़रूर है.
जब भी सफ़र हो धूप का साए की तलब में,
हर शख्श मुझको देख के रुकता ज़रूर है.
चाँदी के चंद सिक्कों को कितना यक़ीन है,
ईमान चाहे देर से बिकता ज़रूर है.
क़िस्मत के जानकार नज़ूमी को देखिए,
लिखता नहीं है वो मगर पढता ज़रूर है.
ग़ज़लों की ज़ायदाद का वारिस नहीं हूँ मैं,
लेकिन ये सच है मेरा भी हिस्सा ज़रूर है.
सजदे में सर झुका के ये सूफ़ी ने बताया ,
फलदार पेड़ होते ही झुकता ज़रूर है.

मैं कितनी भी कोशिश कर लूँ पर पापा जैसा बन नहीं पाया !

  मेरे पापा कोई सुपरमैन नहीं हैं पर फिर भी, मैं कितनी भी कोशिश कर लूँ पर पापा जैसा कभी बन नहीं पाया ! स्कूटर खरीदने के बाद भी चालीस की उम्र ...