उनवान लिख रहा हूँ गज़लों में ज़िदगी के,
आँसू में डूबी खुशियाँ, रोती हुई हंसी के |
सूरज कहीं डुबा दो ये रोशनी बुझा दो,
अरमान सिर्फ इतने होते हैं तीरगी के ।
मुस्कान तो चुका दी किश्तों में ब्याज देकर,
खुशियाँ हिसाब करती हैं क़र्ज़ और बही के ।
वो ख़त सभी जो तुमने मुझको लिखे थे, उनसे,
अब तक महक रहे हैं पन्ने भी डायरी के।
सब शौक आज़मा लो हर तिश्नगी बुझा लो,
मुझको भी तो चुकाने हैं कर्ज़ दिल्लगी के।
ज़ुल्फें सियाह रातें रुखसार माहताबी।
तुमको सिखा रहा हूँ अंदाज शायरी के !
ढेरों सुखनवरों में "अम्बेश" खो गया है,
फिर शौक भी तो खुद ही पाले हैं ग़ालिबी के !
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