Thursday, July 31, 2014

क्या तुम्हे कुछ याद है ?




मेरे अग्रज श्री गोपाल तिवारी ने मुझे whatsapp पर अपने खड़गपुर (प.बंगाल) स्थिति निवास के पास वाले सरोवर के तट पर खींची गयी यह मनोरम दृश्य वाली तस्वीर भेजी थी जिसे देख कर मन में कुछ पंक्तियाँ पनपने लगी......|
कागज पर उतारा तो वो पंक्तियाँ एक पूरी कविता का रूप ले चुकी थी जिसे ब्लॉग के माध्यम से आप सबसे शेयर कर रहा हूँ.......

क्या तुम्हे कुछ याद है ?
वो सरोवर के किनारे बैठकर,
याद है तुमने कहा था प्रेम से !
पल तुम्हे यह याद आयेंगे सदा !
पर भुला बैठी हो अब वो बात भी !
क्या तुम्हे कुछ याद है ?

मंदिरों से गूँजतीं वो आरती की स्वर लहरियां,
आँख मूंदे वो तुम्हारा मुख अलौकिक !
प्रार्थना में हाथ जोड़े तुम खड़ी थी !
और मैं तब एकटक !
उस दिव्य प्रतिमा से तुम्हारे रूप में बस खो गया था !
क्या तुम्हे कुछ याद है ?

उस सरोवर में खिले थे पुष्प कुछ नीले कमल के !
और मैं करता तुम्हारे रूप की तुलना उन्हीं नीले कमल से !
मुस्कुरा कर तुम कभी नज़रें झुकाती !
या कभी इतरा के फिर यूँ खिलखिलाती !
और मैं बस एकटक उस फूल सी खिलती हंसीं में खो गया था !
क्या तुम्हे कुछ याद है ?

याद है वो रात्रि का अंतिम मिलन पल !
पूर्णिमा के चन्द्र का प्रतिबिम्ब जब जल में हिलोरे ले रहा था !
मन मेरा विचलित था विरह की चुभन से !
पर तुम्हे ढाढस बंधाने के लिए मैं हंस रहा था !
अश्रु जो निकला तुम्हारी आँख से तो !
रख लिया मुट्ठी में मैंने यूँ समझ मोती उसे !
क्या भुला दोगी वो अपने कांपते अधरों पे मेरा विरह-चुम्बन !
उस मिलन की याद में अब तक खड़ा हूँ !
मैं उसी तट पर जहाँ तुमने कहा था !
पल तुम्हे यह याद आयेंगे सदा !
पर भुला बैठी हो अब वो बात भी !
क्या तुम्हे कुछ याद है ?


:::अम्बेश तिवारी 
रचना काल : 30.07.2014 

Friday, July 4, 2014

मैं अयोग्य हूँ !

हाँ ! सच कह रहे हैं आप ! मैं अयोग्य हूँ.....
क्योंकि योग्यता के आपके कुछ मापदंड हैं,
जो आपने नहीं बनाये पर बनाये हैं इस समाज ने..
आप तो केवल उन मापदंडों के आधार पर मेरा मुल्यांकन करते हैं
मुझे तौल-परख कर फिर नकारा करार करते हैं !
सच है कि मैं एक मामूली नौकरी करके मुश्किल से अपना खर्च चला पाता हूँ,
रोज़ कुआँ खोदता हूँ रोज़ पानी लाता हूँ !
सच है कि मैं नहीं बना पाया कोई भी प्रॉपर्टी,
और मेरे बैंक खाते में नाम मात्र की रकम रहती है !
यह भी सच है मेरे घर में पैसों कि जगह
सिर्फ उम्मीदों और तसल्ली की बयार बहती है !
तो क्या हुआ अगर मेरे पास दुनिया भर का ज्ञान है !
और जिसके कारण कुछ गिने चुने लोगों की नज़रों में
मेरा थोडा बहुत मान है !
पर ऐसे ज्ञान और मान का क्या है फायदा ?
जो मुझे दौलत और शोहरत न दिला सके
कोई मकान, प्रॉपर्टी, या बैंक बैलेंस भी न बढ़ा सके !
गलत पढाया गया था हमें किताबों में
कि दौलत और स्वास्थ्य भले चला जाये,
पर इंसान का चरित्र नहीं गिरना चाहिए !
क्योंकि मेरे चरित्र में तो कोई खराबी नहीं है,
सिवाय इसके कि बोल देता हूँ कड़वा सच !
यह सोचे बगैर कि इसका परिणाम मेरे विपरीत भी हो सकता है !
शायद यही मेरी असफलता का सबसे बड़ा कारण है,
क्योंकि मैं अयोग्य हूँ आपकी नज़रों में !
क्योंकि इस समाज के बनाये पैमानों पर मैं खरा नहीं उतरता !
हाँ ! सच कह रहे हैं आप ! मैं अयोग्य हूँ.....


 ::::अम्बेश तिवारी 

Tuesday, May 20, 2014

मैं प्रेम गीत कैसे गाऊँ.....?


मैं प्रेम गीत कैसे गाऊँ, मैं प्रेम गीत कैसे गाऊँ....?

जब हो कन्धों पर भार प्रिये ! दिखता न कोई उपचार प्रिये !
हर ओर मचा कोहराम यहाँ, हो रक्तपात अविराम यहाँ,
निज सुख की इच्छा रखूँ बस, दृग मींच तुम्हारा ध्यान करूं,
कैसे यह कष्ट भुलाकर सब, मैं प्रीत-सुधा का पान करूं,
जलती वसुधा, बढ़ता मरुथल, यह सब मैं कैसे बिसराऊँ ?
मैं प्रेम गीत कैसे गाऊँ, मैं प्रेम गीत कैसे गाऊँ.........?

जब सीमा के प्रहरी का शव मस्तकविहीन हो जाता है,
और देश का शासक कर्णधार निद्रा विलीन हो जाता है,
जब महंगाई के बोझ तले मरता किसान और श्रमिक यहाँ,
और नन्हा शिशु बिन भोजन के रोते-रोते सो जाता है,
तब कहो प्रिये कैसे मैं तुम्हारे रूप-जाल में खो जाऊं ?
मैं प्रेम गीत कैसे गाऊँ, मैं प्रेम गीत कैसे गाऊँ........?

जब चलते वाहन में बेटी का मान भंग हो जाता है,
रक्षक बन भक्षक कर प्रहार लज्जाविहीन मुस्काता है,
संतो का वेश बनाकर जब करता कुकर्म यह नर पिशाच,
और धनबल से अपने सारे अपराधों को धो जाता है,
तब कहो तुम्हारे आँचल में छिपकर कैसे मैं सो जाऊं ?
मैं प्रेम गीत कैसे गाऊँ, मैं प्रेम गीत कैसे गाऊँ............?

है राष्ट्र प्रथम, फिर निज कुटुंब, फिर निज सुख का अधिकार हमें,
जब कर्तव्यों को पूर्ण करें तब साधन हो स्वीकार हमें,
है ज्ञात मुझे इन बातों से मन व्यथित तुम्हारा होता है,
पर रोता है जब राष्ट्र प्रिये ! मेरा भी तो मन रोता है,
ऐसे में केवल पोंछ तुम्हारे अश्रु, मैं कैसे मुस्काऊँ ?
मैं प्रेम गीत कैसे गाऊँ, मैं प्रेम गीत कैसे गाऊँ.....?

:::अम्बेश तिवारी 

Sunday, May 18, 2014

बेनिया पुनिया सब गए....

इस ठेठ देहाती भाषा में लिखी गयी रचना की प्रेरणा भी मेरे मित्र डा.पवन मिश्रा ने ही दी । हुआ यूँ कि चुनाव परिणामों के बाद देर शाम हमारी बातचीत हुई जिसमे कांग्रेस सपा और बसपा के चुनाव पूर्व के बड़बोले नेताओं को जनता द्वारा दिये गए करारे जवाब की चर्चा हुई । तब पवन जी ने मुझसे कुछ अपनी भाषा में लिखने को कहा और परिणाम स्वरुप यह छंद निकल आया...

बेनिया, पुनिया सब गए, हारि गवा सलमान,
जैसवाल की भद पिटी, खूब भयो अपमान ।
खूब भयो अपमान के माया हुई गयी सुन्ना,
नेता जी दुई सीट में मा जीत के रह्यो चौकन्ना ।
जेहिका छोड्यो जाई भाजपा के पाले मा,
नीके फंस जईहो तुम अपने ही जाले मा ।
कहत कवि अम्बेश, न लीन्हो कोऊ पंगा,
बुई के पेड़ बबूल, आम तुम पईहो ठेंगा ।

::::अम्बेश तिवारी

थोड़ा सा रूमानी हो जाये.....

आज मेरे मित्र डा.पवन मिश्रा और पूजा कनुप्रिया ने मुझे उलाहना देते हुए कहा कि मैं सिर्फ राजनैतिक पोस्ट लिखता हूँ और श्रृंगार के प्रति भावशून्य हो गया हूँ ! तब मुझे आभास हुआ कि किसी हद तक यह सत्य भी है । उनकी प्रेरणा पर कुछ पंक्तियाँ लिखी जो लिखते लिखते ग़ज़ल बन गयी...

बस यही काम मुझे याद रहा,
एक तेरा नाम मुझे याद रहा !
वो तेरे साथ बिताया हुआ हर एक लम्हा,
वो सहरो-शाम मुझे याद रहा !
मेरी आँखों से ख्वाब छीन लिए थे जिसने,
वो मिरा इश्क-ऐ-नाकाम मुझे याद रहा !
तुझे तन्हाईयों में ढूंढता रहता हूँ मैं,
तेरा वो अक्स-ए-गुलफाम मुझे याद रहा !
तेरी चाहत न मिली चार दिनों तक भी फकत,
रहा मैं उम्र भर बदनाम मुझे याद रहा !
तेरे जाने के बाद किसके सहारे जीता,
महफ़िल-ऐ-जाम, सरेआम मुझे याद रहा !
बस यही काम मुझे याद रहा,
एक तेरा नाम मुझे याद रहा !

:::::अम्बेश तिवारी

Wednesday, May 14, 2014

मनमोहन सिंह की विदाई

नेहरु और इंदिरा के बाद वो सबसे लम्बे समय तक प्रधानमंत्री पद पर रहे ! और यह उपलब्धि तब और बड़ी हो जाती है जब हम इस बात पर ध्यान देते हैं कि यह अल्पमत वाली गठबंधन सरकारों का दौर था न कि नेहरु और इंदिरा वाला पूर्ण बहुमत का दौर | अपनी सारी निष्ठा, गरिमा और बौद्धिक क्षमता के बावजूद मनमोहन सिंह इतिहास के पहले (और शायद अंतिम भी) ऐसे व्यक्ति के रूप में पहचाने जायेंगे जिसने देश के सबसे शक्तिशाली पद से अपनी विदाई को चुनाव से चार महीने पहले एक हस्तांतरण की तरह घोषित कर दिया था | हाँ ! यह हस्तांतरण ही था अनौपचारिक रूप से अपने पद को उन्होंने ठीक उसी तरह कांग्रेस अध्यक्ष को लौटा दिया जैसे उन्होंने दुर्घटनावश 2004 में इसे स्वीकार किया था |

जब 2004 में उन्होंने सत्ता संभाली थी तब देश एक स्वस्थ अर्थव्यवस्था के साथ तरक्की की ओर उन्मुख था और हम आज की परिस्थितियों से बहुत अच्छी परिस्थितियों में हो सकते थे पर आज दस वर्ष के बाद जब वो अपना सामान समेट कर विदाई की तैयारी कर रहें हैं तब बीते दस वर्ष हमें अनेक घोटालों, दफ्तरों से गुम होती फाइलों, सीमा पार घुसपैठ, सैनिकों के कटे सर, चीन का अतिक्रमण, नौसेना की दुर्घटनाएं, सेनाओं का डूबता मनोबल, सबसे योग्य अर्थशास्त्री की नाक के नीचे लगातार डूबती अर्थव्यवस्था, अराजकता, जनता के आन्दोलन, धरने प्रदर्शन और इन सबके बीच उनकी कभी न ख़त्म होने वाली लम्बी खामोशी के लिए याद किये जायेंगे |

क्या देश के सर्वोच्च कार्यकारी पद पर आसीन व्यक्ति का सिर्फ यह कहना पर्याप्त है कि “मैं निर्दोष हूँ, मेरी छवि बेदाग है और मुझे पता नहीं था मेरे नीचे क्या-क्या हो रहा था” ? यही धृतराष्ट्र ने किया था ! यही द्रोणाचार्य, कृपाचार्य और भीष्म ने किया था ! हांलाकि यह सब महान विभूतियाँ थे पर इन सबने अधर्म के विरुद्ध अपनी आवाज़ उठाने के बजाय स्वयं की कुर्सी और सत्ता को सुरक्षित रखना अधिक आवश्यक समझा | यह लोग सीधे तौर पर पाप के भागी नहीं थे पर स्वामी विवेकानंद के शब्दों में “स्वयं को कमजोर मानकर अन्याय के विरूद्ध आवाज़ न उठाना भी पाप है और आप भी पाप में उतने ही भागीदार हैं जितना पाप और अन्याय करने वाला” |

नेतृत्वक्षमता का अर्थ होता है न सिर्फ स्वयं का आत्मविश्वास कायम रखना बल्कि दूसरों में भी अपने प्रति विश्वास बनाये रखना, आवयश्कता पड़ने पर उचित और कठोर निर्णय लेना और इससे भी अधिक अपने निर्णयों की सार्थकता को मीडिया के माध्यम से जनता के बीच पहुँचाना | मनमोहन सिंह यह सब करने में असफल रहे! वो कभी भी नेतृत्व कर ही नहीं पाए ! वो सिर्फ और सिर्फ एक निष्ठावान अनुयायी बने रहे |

आज जबकि वो जा रहे हैं तब वो अपने उत्तराधिकारी के लिए जो सबसे महत्वपूर्ण कार्य छोड़ कर जा रहे हैं वह यह है कि उनके बाद आने वाला व्यक्ति सबसे पहले बीते दस वर्षों में प्रधानमंत्री पद की गरिमा को जो क्षति पहुंची है उसे पुनर्स्थापित करे ।

Wednesday, April 2, 2014

तुम कहाँ खो गए कान्हा !



स्वर्ग में विचरण करते हुए अचानक एक दुसरे के सामने आ गए.....
विचलित से कृष्ण ,प्रसन्नचित सी राधा...
कृष्ण सकपकाए, राधा मुस्काई, इससे पहले कृष्ण कुछ कहते राधा बोल उठी
कैसे हो द्वारकाधीश ?
जो राधा उन्हें कान्हा कान्हा कह के बुलाती थी उसके मुख से द्वारकाधीश का संबोधन कृष्ण को भीतर तक घायल कर गया फिर भी किसी तरह अपने आप को संभाल लिया और बोले राधा से.........
मै तो तुम्हारे लिए आज भी कान्हा हूँ तुम तो द्वारकाधीश मत कहो !
आओ बैठते है .... कुछ मै अपनी कहता हूँ कुछ तुम अपनी कहो
सच कहूँ राधा जब जब भी तुम्हारी याद आती थी इन आँखों से आँसुओं की बुँदे निकल आती थी
बोली राधा ,मेरे साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ ना तुम्हारी याद आई ना कोई आंसू बहा क्यूंकि हम तुम्हे कभी भूले ही कहाँ थे जो तुम याद आते इन आँखों में सदा तुम रहते थे कहीं आँसुओं के साथ निकल ना जाओ इसलिए रोते भी नहीं थे.....
प्रेम के अलग होने पर तुमने क्या खोया इसका इक आइना दिखाऊं आपको ?
कुछ कडवे सच ,प्रश्न सुन पाओ तो सुनाऊ?
कभी सोचा इस तरक्की में तुम कितने पिछड़ गए यमुना के मीठे पानी से जिंदगी शुरू की और समुन्द्र के खारे पानी तक पहुच गए ?
एक ऊँगली पर चलने वाले सुदर्शन चक्र पर भरोसा कर लिया और दसों उँगलियों पर चलने वाळी
बांसुरी को भूल गए ?
कान्हा जब तुम प्रेम से जुड़े थे तो ....
जो ऊँगली गोवर्धन पर्वत उठाकर लोगों को विनाश से बचाती थी प्रेम से अलग होने पर वही ऊँगली
क्या क्या रंग दिखाने लगी सुदर्शन चक्र उठाकर विनाश के काम आने लगी
कान्हा और द्वारकाधीश में क्या फर्क होता है बताऊँ...........
कान्हा होते तो तुम सुदामा के घर जाते ! सुदामा तुम्हारे घर नहीं आता
युद्ध में और प्रेम में यही तो फर्क होता है युद्ध में आप मिटाकर जीतते हैं और प्रेम में आप मिटकर जीतते हैं कान्हा प्रेम में डूबा हुआ आदमी दुखी तो रह सकता है पर किसी को दुःख नहीं देता
आप तो कई कलाओं के स्वामी हो स्वप्न दूर द्रष्टा हो गीता जैसे ग्रन्थ के दाता हो
पर आपने क्या निर्णय किया अपनी पूरी सेना कौरवों को सौंप दी?
और अपने आपको पांडवों के साथ कर लिया सेना तो आपकी प्रजा थी राजा तो पालक होता है उसका रक्षक होता है !
आप जैसा महा ज्ञानी उस रथ को चला रहा था जिस पर बैठा अर्जुन आपकी प्रजा को ही मार रहा था आपनी प्रजा को मरते देख आपमें करूणा नहीं जगी क्यूंकि आप प्रेम से शून्य हो चुके थे
आज भी धरती पर जाकर देखो अपनी द्वारकाधीश वाळी छवि को ढूंढते रह जाओगे हर घर हर मंदिर में मेरे साथ ही खड़े नजर आओगे
आज भी मै मानती हूँ लोग गीता के ज्ञान की बात करते हैं उनके महत्व की बात करते है
मगर धरती के लोग युद्ध वाले द्वारकाधीश. पर नहीं प्रेम वाले कान्हा पर भरोसा करते हैं
गीता में मेरा दूर दूर तक नाम भी नहीं है पर आज भी लोग उसके समापन पर
"राधे राधे" करते है"

मैं कितनी भी कोशिश कर लूँ पर पापा जैसा बन नहीं पाया !

  मेरे पापा कोई सुपरमैन नहीं हैं पर फिर भी, मैं कितनी भी कोशिश कर लूँ पर पापा जैसा कभी बन नहीं पाया ! स्कूटर खरीदने के बाद भी चालीस की उम्र ...