Wednesday, May 14, 2014

मनमोहन सिंह की विदाई

नेहरु और इंदिरा के बाद वो सबसे लम्बे समय तक प्रधानमंत्री पद पर रहे ! और यह उपलब्धि तब और बड़ी हो जाती है जब हम इस बात पर ध्यान देते हैं कि यह अल्पमत वाली गठबंधन सरकारों का दौर था न कि नेहरु और इंदिरा वाला पूर्ण बहुमत का दौर | अपनी सारी निष्ठा, गरिमा और बौद्धिक क्षमता के बावजूद मनमोहन सिंह इतिहास के पहले (और शायद अंतिम भी) ऐसे व्यक्ति के रूप में पहचाने जायेंगे जिसने देश के सबसे शक्तिशाली पद से अपनी विदाई को चुनाव से चार महीने पहले एक हस्तांतरण की तरह घोषित कर दिया था | हाँ ! यह हस्तांतरण ही था अनौपचारिक रूप से अपने पद को उन्होंने ठीक उसी तरह कांग्रेस अध्यक्ष को लौटा दिया जैसे उन्होंने दुर्घटनावश 2004 में इसे स्वीकार किया था |

जब 2004 में उन्होंने सत्ता संभाली थी तब देश एक स्वस्थ अर्थव्यवस्था के साथ तरक्की की ओर उन्मुख था और हम आज की परिस्थितियों से बहुत अच्छी परिस्थितियों में हो सकते थे पर आज दस वर्ष के बाद जब वो अपना सामान समेट कर विदाई की तैयारी कर रहें हैं तब बीते दस वर्ष हमें अनेक घोटालों, दफ्तरों से गुम होती फाइलों, सीमा पार घुसपैठ, सैनिकों के कटे सर, चीन का अतिक्रमण, नौसेना की दुर्घटनाएं, सेनाओं का डूबता मनोबल, सबसे योग्य अर्थशास्त्री की नाक के नीचे लगातार डूबती अर्थव्यवस्था, अराजकता, जनता के आन्दोलन, धरने प्रदर्शन और इन सबके बीच उनकी कभी न ख़त्म होने वाली लम्बी खामोशी के लिए याद किये जायेंगे |

क्या देश के सर्वोच्च कार्यकारी पद पर आसीन व्यक्ति का सिर्फ यह कहना पर्याप्त है कि “मैं निर्दोष हूँ, मेरी छवि बेदाग है और मुझे पता नहीं था मेरे नीचे क्या-क्या हो रहा था” ? यही धृतराष्ट्र ने किया था ! यही द्रोणाचार्य, कृपाचार्य और भीष्म ने किया था ! हांलाकि यह सब महान विभूतियाँ थे पर इन सबने अधर्म के विरुद्ध अपनी आवाज़ उठाने के बजाय स्वयं की कुर्सी और सत्ता को सुरक्षित रखना अधिक आवश्यक समझा | यह लोग सीधे तौर पर पाप के भागी नहीं थे पर स्वामी विवेकानंद के शब्दों में “स्वयं को कमजोर मानकर अन्याय के विरूद्ध आवाज़ न उठाना भी पाप है और आप भी पाप में उतने ही भागीदार हैं जितना पाप और अन्याय करने वाला” |

नेतृत्वक्षमता का अर्थ होता है न सिर्फ स्वयं का आत्मविश्वास कायम रखना बल्कि दूसरों में भी अपने प्रति विश्वास बनाये रखना, आवयश्कता पड़ने पर उचित और कठोर निर्णय लेना और इससे भी अधिक अपने निर्णयों की सार्थकता को मीडिया के माध्यम से जनता के बीच पहुँचाना | मनमोहन सिंह यह सब करने में असफल रहे! वो कभी भी नेतृत्व कर ही नहीं पाए ! वो सिर्फ और सिर्फ एक निष्ठावान अनुयायी बने रहे |

आज जबकि वो जा रहे हैं तब वो अपने उत्तराधिकारी के लिए जो सबसे महत्वपूर्ण कार्य छोड़ कर जा रहे हैं वह यह है कि उनके बाद आने वाला व्यक्ति सबसे पहले बीते दस वर्षों में प्रधानमंत्री पद की गरिमा को जो क्षति पहुंची है उसे पुनर्स्थापित करे ।

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