यदि पहले भी सोशल मीडिया होता तो क्या होता? चलिए पहले आज से
चार वर्ष पहले तक के उस पहलू पर विचार करते हैं कि जब अपनी आवाज़ को आम जनता तक
पहुँचाने और अपने मन की बातों को सबके साथ बांटने का साधन यानी सोशल मीडिया जैसे
फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग इत्यादि इतने प्रचलित और सर्वप्राप्य नहीं थे तब कैसे हम चाह कर भी अपने मन कि बातें अपने मन में ही रखने को विवश होते थे | मुझे याद है
मेरे एक मामा जो बैंककर्मी होने के साथ साथ लेखक, चिन्तक, और शिक्षाविद भी थे कैसे
अपने लिखी हुई किताबों को छपवाने के लिए प्रकाशकों के चक्कर लगाया करते थे और यदि
किताब छाप भी दी गयी तो उसे कितने लोग पढेंगे और समझेंगे इसकी कोई गारंटी नहीं |
खुद मैंने कितने लेख और पाठक के पत्र जैसे साधनों के जरिये अपने विचारों को दैनिक
जागरण में छपवाने का असफल प्रयास किया है और न जाने मेरे जैसे कितने अनगिनत लोगों
के विचार और लेख इसी तरह अख़बार के दफ्तरों की रद्दी की टोकरी की शोभा बढ़ा रहे
होंगे | पर इसी विवशता का फायदा का हमारी सरकारों ने और हमारे शासकों ने कितनी
बखूबी उठाया इस बात का अंदाज़ा आप नीचे लिखे कुछ सन्दर्भों से जरूर समझ जायेंगे |
हमें बचपन में इतिहास की किताबों में सिर्फ महात्मा गाँधी, नेहरु एंड फॅमिली, और कांग्रेस की गौरव गाथा पढाई जाती रही | हमें कभी यह नहीं पढाया गया कि जवाहर लाल नेहरु को प्रधानमंत्री के रूप में देश के ऊपर जबरदस्ती थोपा गया था, जबकि 1946 में हुए नामांकन में 15 प्रदेश कांग्रेस समितियों में से 12 ने सरदार पटेल का और 3 ने आचार्य कृपलानी का नाम प्रथम प्रधानमंत्री के लिए अनुमोदित किया था और किसी ने भी नेहरु का नाम प्रस्तावित नहीं किया था | बाद में गाँधी जी के कहने पर सरदार पटेल और कृपलानी जी ने अपना अपना नाम वापस ले लिया था | पर फिर भी नेहरु को हमेशा सरदार पटेल से ज्यादा महान नेता के रूप में चित्रित किया गया | अब सोचिये कि अगर तब फेसबुक और ट्विटर होता और कांग्रेस का कोई नेता इस बात को फेसबुक या ट्विटर पर लिख देता तो आज देश का इतिहास कुछ और होता |
सोचिये अगर भगत सिंह के पिता और मित्र फेसबुक और ट्विटर पर
लिख देते की गाँधी जी ने उनके बेटे की फांसी रुकवाने का प्रयास सिर्फ इसलिए नहीं
किया क्योंकि वो भगत सिंह की लोकप्रियता से डरते थे और वो नहीं चाहते थे की देश
में कोई भी नेता ऐसा हो जो उनके सिद्धांतों के विपरीत किसी और नए सिद्धांत पर जनता
को जागरूक कर दे | जैसे अर्जुन को द्रोणाचार्य ने सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर साबित करने
के लिए एकलव्य के अंगूठे की बलि दे दी थी उसी प्रकार गाँधी जी ने नेहरु प्रेम के
कारण इस देश से भगत सिंह, सुभाष चन्द्र बोस और सरदार पटेल जैसे कितने एकलव्यों की
बलि दे दी |
सोचिये अगर चाइना वार के समय नेहरु का यह बयान कि “चीन ने जिस ज़मीन पर कब्ज़ा किया है वो बंज़र और बेकार है” आज के ज़माने में आया होता तो क्या वाकई नेहरु की छवि वैसी ही न होती जैसी आज राहुल गांधी की है ?
या इंदिरा की हत्या के बाद हुए सिखों के कत्लेआम के सवाल पर
राजीव गाँधी का यह बयान कि “जब कोई बड़ा पेड़
गिरता है तो ज़मीन हिलती है” आज के दौर आया होता
तो क्या वाकई राजीव को सहानभूति की वही लहर मिल पाती जैसी 1984 में मिली थी?
मूल रूप से देखा जाये तो आज भी देश की परिस्थितियां लगभग वैसी
ही हैं जैसी आज़ादी के पहले थी पहले प्रेस की आज़ादी पर प्रतिबन्ध था और सिर्फ वही खबरें
छपती थी जो सरकार चाहती थी आज इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर सरकार का कब्ज़ा है, पैसे के
बल पर सिर्फ वो खबरें दिखाई जा रही हैं जिनसे सरकार की छवि को कोई नुकसान न पहुंचे
और असली ख़बरों को दबाने के लिए बकवास ख़बरों को बढ़ा चढ़ा कर दिखाया जा रहा है | पहले
आसाराम और अब उन्नाव का खज़ाना ! पर पहले क्रांतिकारियों के पास सोशल मीडिया जैसा
कोई माध्यम नहीं था पर अब है, और यही फर्क सरकार को भारी पड़ रहा है | अपनी तमाम
कोशिशों के बावजूद सिर्फ यही एक ऐसा माध्यम है जहाँ सरकार का बस नहीं चल पा रहा है
| मतलब पूरी बात का लब्बोलुआब यह है की फेसबुक जहाँ एक तरफ अपनी बात को सब तक
पहुँचाने का माध्यम है वहीँ ये आने वाले समय बहुत बड़ी क्रांति का सूत्रधार भी
बनेगा | इसीलिए तो लेख का शीर्षक रखा है "फेसबुक" तुम्हारी जय हो |
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