एक ग़ज़ल की कोशिश -
कारवाँ ज़िन्दगी का यूँ चलता रहा,
जग गिराता रहा, मैं संभलता रहा ।
उसके बिन उम्र ऐसे कटी बेखबर,
रात ढलती रही, दिन निकलता रहा ।
राह में कितने शोले और अंगार थे,
पाँव जलते रहे पर मैं चलता रहा ।
मैंने जिस पर भरोसा किया बेपनाह,
मुझको हर मोड़ पर वो ही छलता रहा ।
उसने कपड़ों के जैसे ही रिश्ते चुने,
वक़्त के साथ रिश्ते बदलता रहा ।
वो दगा दे के मुझको चला भी गया,
मैं खड़ा देखता हाथ मलता रहा ।
आप रोशन हुए एक शमा की तरह,
मोम बन कर मगर मैं पिघलता रहा ।
जिसकी राहों में मैंने गुज़ारे थे दिन,
मुझसे बचकर वो राहें बदलता रहा ।
है अँधेरा बहुत सब यह कहते रहे,
मैं मगर एक दिया बनके जलता रहा ।
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अम्बेश तिवारी
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