Sunday, July 4, 2021

झाड़े रहो कलेक्टरगंज !!

हटिया खुली बजाजा बन्द,
झाड़े रहो कलेक्टरगंज !!

कानपुर के गौरवमयी इतिहास का एक  अनकहा पन्ना !! कानपुर में रहने वालों लोगों ने अक्सर मज़ाक में यह कहावत सुनी होगी पर बहुत कम लोगों को इस कहावत के पीछे का इतिहास पता होगा !!

इसे जानने से पहले आपको हटिया, बजाजा और कलेक्टरगंज के बारे में समझना होगा !! हटिया यानी कानपुर में लोहे के बर्तनों का थोक बाजार ! पर हटिया उन दिनों क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए भी जाना जाता था !! बजाजा यानी कपडों का थोक बाजार जिसे आप आज जनरलगंज के नाम से जानते हैं और कलेक्टरगंज यानी कानपुर की थोक अनाज मण्डी, जहाँ दूर दूर गाँवों से किसान अपना अनाज बैलगाड़ी में लादकर बेचने के लिए लाते थे !!
तो बात उन दिनों की है जब पूरे देश में गाँधी जी का असहयोग आंदोलन चल रहा था और हर जगह विदेशी कपड़ों की होली जलाई जा रही थी!! कानपुर के कपड़ा बाजार के व्यापारियों ने इसमें बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया और विरोध स्वरूप अपनी दुकानों में इंग्लैंड की मिलों में बने कपड़ों का पूर्ण बहिष्कार किया ! जिसकी वजह से उन दुकानों में अनिश्चित कालीन बन्दी की स्थिति आ गयी !! इससे उन व्यापारियों और वहाँ काम करने वाले कर्मचारियों के घरों में भूखे रहने की नौबत तक आ गयी !! 
इस वजह से उन दिनों में उनके घरों की महिलाएं रात के अंधेरे में कलेक्टरगंज जाती थी और वहाँ झाड़ू लगाती थीं क्योंकि दिन में अनाज की खरीद-फरोख्त के दौरान गल्ले के व्यापारी किसानों की बोरियों में रखे अनाज की गुणवत्ता जाँचने के लिए एक नुकीले खुरपीनुमा यन्त्र जिसे आम भाषा में परखी कहा जाता है को बोरी में घुसाकर थोड़ा अनाज निकालते थे और बाद में वही अनाज काफी मात्रा में बाज़ार की जमीन पर गिर जाता था !
तो कपड़ा बाज़ार के कुलीन परिवारों की स्त्रियाँ रात के अंधेरे में इस अनाज को बटोर लेती थीं और उसी से अपने बच्चों के लिए दो वक्त की रोटी चावल का प्रबंध करतीं थीं !!
दिन के समय वही व्यापारी और कर्मचारी खादी के कपड़े पहन कर अंग्रेज़ो के विरोध में मोर्चा निकलते थे !! यह बात जब अंग्रेजों को पता लगी तब उन्होंने इन व्यापारियों को हतोत्साहित करने के लिए अपने चाटुकारों द्वारा इस कहावत का जन्म करवाया और जब सत्याग्रही व्यापारी बाज़ार में निकलते थे तो अंग्रेजों के चाटुकार उन्हें चिढ़ाने के लिए कहते थे कि 
"हटिया खुली बजाजा बन्द,
झाड़े रहो कलेक्टरगंज !!"
फिर तो यह प्रचलन चल गया कि यदि कोई निम्नवर्गीय या निम्नमध्यवर्गीय व्यक्ति थोड़े अच्छे कपड़े पहन कर निकलता है तो आसपास के लोग तंज के रूप में उसे चिढ़ाने के लिए "झाड़े रहो कलेक्टरगंज" इस कहावत का प्रयोग करते हैं !!! 
पर इस कहावत के पीछे हमारे पूर्वजों का कितना बड़ा त्याग छिपा है यह बात लोग नहीं जानते !!
इसलिए जब भी इस कहावत का प्रयोग करें तो अपने इस गौरवशाली इतिहास और उन अज्ञेय बलिदानियों को जरूर याद करें !!

No comments:

मैं कितनी भी कोशिश कर लूँ पर पापा जैसा बन नहीं पाया !

  मेरे पापा कोई सुपरमैन नहीं हैं पर फिर भी, मैं कितनी भी कोशिश कर लूँ पर पापा जैसा कभी बन नहीं पाया ! स्कूटर खरीदने के बाद भी चालीस की उम्र ...