"आओ तुम्हें जज़्बात सुनाऊँ !"
बिखरी जुल्फें, होंठ शबनमी, और चांदनी रात सुनाऊँ,
या सूखे की मार झेलते लोगों के हालात सुनाऊँ ।
आओ तुम्हें जज़्बात सुनाऊँ !
नहीं लिखी जाती मुझसे वो प्रेम और मनुहार की बातें,
बिंदिया, चूड़ी, कंगन, झुमके, पायल की झनकार की बातें ।
जब पीने के जल की खातिर तरस रही आधी आबादी,
ऐसे में कैसे लिख दूं मैं, इश्क मुहब्बत प्यार की बातें ।
ठन्डे चूल्हे, उजड़ी बस्ती, भूखे बच्चे, रोती माँ,
और पिता की सूनी आँखों से होती बरसात सुनाऊँ !
आओ तुम्हें जज़्बात सुनाऊँ !
मैं फूहड़ चुटकले, और अश्लील व्यंग्य न लिख पाऊंगा,
मैं साकी, हाला, मधुशाला, के प्रसंग न लिख पाऊंगा ।
मुझे तो हरदम दर्द से उठती चीख सुनाई देती है,
पैरों के छाले, आँसू की रेख दिखाई देती है ।
जिनके घर की बहू-बेटियां टुकड़ों में बिक जाती हैं,
तुम्हें रोज़ उनके जीवन में होती शह और मात सुनाऊँ !
आओ तुम्हें जज़्बात सुनाऊँ !
कितने नेता और सरकारें, कितने वादे और विकास,
कितने बरस बीत गए फिर भी रोज़ जगाते झूठी आस ।
कोई कहता अच्छे दिन हैं, कोई कहता सबका साथ,
पर कोई भी बदल नहीं पाया अब तक इनके हालात ।
मगर मैं लिखता आया हूँ, आगे भी लिखता जाऊंगा,
पीड़ा होगी जब जब मुझको, तब तब मैं वो बात सुनाऊँ !
आओ तुम्हें जज़्बात सुनाऊँ !
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