Saturday, May 7, 2016

रोज़ टूटते रोज़ बिखरते फिर भी आँखों में बसते है !

रोज़ टूटते रोज़ बिखरते फिर भी आँखों में बसते है ।
हम जैसे लोगों के स्वप्न-महल देखो कितने सस्ते हैं ।।
जिसने धन-दौलत के चलते सारे रिश्ते तोड़ लिए ।
अम्मा-बापू अब भी उसके लिए रोज़ पूजा करते हैं ।।
जिनको साथ लिए बरसों तक ढोया मेरे पुरखों ने ।
मेरी दो रोटी की खातिर वो उसूल हर दिन मरते हैं ।।
उसकी लाचारी उसकी खुद्दारी पर भारी पड़ती है ।
यूँ ही नहीं किसी औरत की इज्जत के सौदे लगते हैं ।।
उन्हें फ़िक्र है मन्दिर, मस्जिद, हिन्दू और मुसलमाँ की ।
उनकी इसी सियासत पर कितने बेबस सूली चढ़ते हैं ।।
जिन रिश्तों के लिए आदमी जीवन भर मरता रहता है ।
वो ही रिश्ते उसके मरते ही उसको मिट्टी कहते हैं ।।

::::अम्बेश तिवारी
रचना : 07.05.2016

No comments:

होली पर व्यंग्य कविता

 होली पर व्यंग्य कविता  अबकी होली पर दिल्ली ने बदला ऐसा रंग, छोड़ आप का साथ हो गयी मोदी जी के संग, मोदी जी के संग करो मत महंगाई की बात, अपने ...